अपदुन्नमूलाना दुर्गा स्तोत्रम्

लक्ष्मीशे योगनिद्रां प्रभजति भुजगाधीशतल्पे सदर्पा- वुत्पन्नौ दानवौ तच्छ्रवणमलमयाङ्गौ मधुं कैटभं च ।
दृष्ट्वा भीतस्य धातुः स्तुतिभिरभिनुतां आशु तौ नाशयन्तीं, दुर्गां देवीं प्रपद्ये शरणमहमशेषापदुन्मूलनाय ॥ १ ॥

युद्धे निर्जित्य दैत्यस्त्रिभुवनमखिलं यस्तदीय धिष्ण्ये- ष्वास्थाप्य स्वान् विधेयान् स्वयमगमदसौ शक्रतां विक्रमेण ।
तं सामात्याप्तमित्रं महिषमभिनिहत्यास्यमूर्धाधिरूढां, दुर्गां देवीं प्रपद्ये शरणमहमशेषापदुन्मूलनाय ॥ २ ॥

विश्वोत्पत्तिप्रणाशस्थितिविहृतिपरे देवि घोरामरारि- त्रासात् त्रातुं कुलं नः पुनरपि च महासङ्कटेष्वीदृशेषु ।
आविर्भूयाः पुरस्तादिति चरणनमत् सर्वगीर्वाणवर्गां, दुर्गां देवीं प्रपद्ये शरणमहमशेषापदुन्मूलनाय ॥ ३ ॥

हन्तुं शुंभं निशुंभं विबुधगणनुतां हेमडोलां हिमाद्रा- वारूढां व्यूढदर्पान् युधि निहतवतीं धूम्रदृक् चण्डमुण्डान् ।
चामुण्डाख्यां दधानां उपशमितमहारक्तबीजोपसर्गां, दुर्गां देवीं प्रपद्ये शरणमहमशेषापदुन्मूलनाय ॥ ४ ॥

ब्रह्मेशस्कन्दनारायणकिटिनरसिंहेन्द्रशक्तीः स्वभृत्याः, कृत्वा हत्वा निशुंभं जितविबुधगणं त्रासिताशेषलोकम् ।
एकीभूयाथ शुंभं रणशिरसि निहत्यास्थितां आत्तखड्गां, दुर्गां देवीं प्रपद्ये शरणमहमशेषापदुन्मूलनाय ॥ ५ ॥

उत्पन्ना नन्दजेति स्वयमवनितले शुंभमन्यं निशुंभम्, भ्रामर्याख्यारुणाख्या पुनरपि जननी दुर्गमाख्यं निहन्तुम् ।
भीमा शाकंभरीति त्रुटितरिपुभटां रक्तदन्तेति जातां, दुर्गां देवीं प्रपद्ये शरणमहमशेषापदुन्मूलनाय ॥ ६ ॥

त्रैगुण्यानां गुणानां अनुसरणकलाकेलि नानावतारैः, त्रैलोक्यत्राणशीलां दनुजकुलवनीवह्निलीलां सलीलाम् ।
देवीं सच्चिन्मयीं तां वितरितविनमत्सत्रिवर्गापवर्गां, दुर्गां देवीं प्रपद्ये शरणमहमशेषापदुन्मूलनाय ॥ ७ ॥

सिंहारूढां त्रिनेत्रां करतलविलसत् शंखचक्रासिरम्यां, भक्ताभीष्टप्रदात्रीं रिपुमथनकरीं सर्वलोकैकवन्द्याम् ।
सर्वालङ्कारयुक्तां शशियुतमकुटां श्यामलाङ्गीं कृशाङ्गीं, दुर्गां देवीं प्रपद्ये शरणमहमशेषापदुन्मूलनाय ॥ ८ ॥

त्रायस्वस्वामिनीति त्रिभुवनजननि प्रार्थना त्वय्यपार्था, पाल्यन्तेऽभ्यर्थनायां भगवति शिशवः किन्न्वनन्याः जनन्या ।
तत्तुभ्यं स्यान्नमस्येत्यवनतविबुधाह्लादिवीक्षाविसर्गां, दुर्गां देवीं प्रपद्ये शरणमहमशेषापदुन्मूलनाय ॥ ९ ॥

एतं सन्तः पठन्तु स्तवमखिलविपज्जालतूलानलाभं, हृन्मोहध्वान्तभानुप्रतिममखिलसङ्कल्पकल्पद्रुकल्पम् ।
दौर्गं दौर्गत्यघोरातपतुहिनकरप्रख्यमंहोगजेन्द्र- श्रेणीपञ्चास्यदेश्यं विपुलभयदकालाहितार्क्ष्यप्रभावम्  ॥ १० ॥

"आपदुन्नमूलाना दुर्गा स्तोत्रम" देवी दुर्गा को समर्पित एक शक्तिशाली भजन है, जिसे देवी या शक्ति के नाम से भी जाना जाता है। संकट, खतरे या प्रतिकूलता के समय में देवी दुर्गा का आशीर्वाद और सुरक्षा पाने के लिए भक्तों द्वारा इस स्तोत्र का पाठ किया जाता है। शब्द "अपादुन्नमूलाना" का अनुवाद "कठिनाइयों को दूर करने वाला" या "मुसीबतों को दूर करने वाला" है, जो देवी दुर्गा की सुरक्षात्मक और लाभकारी प्रकृति पर जोर देता है।

स्तोत्र में आम तौर पर छंद होते हैं जो देवी दुर्गा के विभिन्न रूपों और गुणों का वर्णन करते हैं, उनके दिव्य गुणों की प्रशंसा करते हैं, और भक्त के सामने आने वाली कठिनाइयों और चुनौतियों को कम करने के लिए उनकी कृपा का आह्वान करते हैं। ऐसा माना जाता है कि आपदुन्नमूलन दुर्गा स्तोत्रम का ईमानदारी और भक्ति के साथ पाठ करने से, चुनौतीपूर्ण समय के दौरान उनका दिव्य हस्तक्षेप और मार्गदर्शन प्राप्त हो सकता है।

भक्त अक्सर शक्ति, साहस और सुरक्षा के स्रोत के रूप में इस स्तोत्र की ओर रुख करते हैं, खासकर संकट के क्षणों में या जब उन्हें अपने जीवन में बाधाओं को दूर करने के लिए दैवीय सहायता की आवश्यकता होती है। यह दिव्य स्त्री के सुरक्षात्मक और पोषण संबंधी पहलू में अटूट विश्वास की अभिव्यक्ति है।

अपदुन्नमूलन दुर्गा स्तोत्रम हिंदू धर्म में भक्ति भजनों की समृद्ध परंपरा का एक अभिन्न अंग है और भक्तों के लिए देवी दुर्गा से जुड़ने, उनके दिव्य आशीर्वाद और जीवन के परीक्षणों और कष्टों से निपटने के लिए मार्गदर्शन प्राप्त करने के साधन के रूप में कार्य करता है।









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