

हम सभी जीवन में कभी न कभी अकेलापन महसूस करते हैं। ऐसा लगता है जैसे पूरी दुनिया से कट गए हों, जैसे कोई हमारी बात समझ नहीं पा रहा, जैसे कोई हमारी ज़रूरत नहीं समझ रहा। पर सच्चाई यह है कि यह भावनाएँ हमारे भीतर से आती हैं, हमारी सोच से।
शांति और सुकून अकसर हमें अकेलेपन से ही मिलते हैं। मगर जब यह अकेलापन भीतर तक घुसकर हमें तोड़ने लगे, तब यह ज़रूरी हो जाता है कि हम इसे पहचानें और समझें। बहुत बार हम इसलिए टूट जाते हैं क्योंकि हमें लगता है कि हम इतने अकेले हैं कि अब किसी को हमारी ज़रूरत ही नहीं। मगर असल में यह हमारी सोच का भ्रम होता है।
हो सकता है, सामने कोई न दिख रहा हो, मगर कोई न कोई हमारे लिए हमेशा मौजूद रहता है — कभी यादों में, कभी प्रार्थनाओं में, कभी किसी अनजाने से सहारे में।
हमें सबसे पहले यह मानना होगा कि हमारी अपनी मूल्य और उपस्थिति मायने रखती है। यदि हम खुद को पहचान लें, तो दुनिया भी हमें पहचान लेगी।
अकेलापन कोई स्थायी स्थिति नहीं है। यह एक मनोदशा है, जिसे बदला जा सकता है।
जीवन अकेले नहीं जिया जा सकता, लेकिन अकेलेपन से डरकर भी नहीं जिया जा सकता।
अपने उद्देश्य, अपनी पहचान और अपनी यात्रा को समझना शुरू कीजिए। अकेलापन खुद ही दूर हो जाएगा।
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