अहो कृतार्थाऽस्मि जगन्निवास ते पदाब्जसंलग्नरजःकणादहं।
स्पृशामि यत्पद्मजशङ्करादिभि-र्विमृश्यते रन्धितमानसैः सदा ॥१॥
अहो विचित्रं तव राम चेष्टितम् मनुष्यभावेन विमोहितं जगत्।
चलस्यजस्रं चरणादि वर्जितः संपूर्ण आनन्दमयोऽतिमायिकः॥२॥
यत्पादपंकजपरागविचित्रगात्रा भागीरथी भवविरिञ्चमुखान् पुनाति।
साक्षात् स एव मम दृग्विषयो यदास्ते किं वर्ण्यते मम पुराकृतभागधेयम् ॥३॥
मर्त्यावतारे मनुजाकृतिं हरिं रामाभिधेयं रमणीयदेहिनम्।
धनुर्द्धरं पद्मविलोललोचनं भजामि नित्यं न परान् भजिष्ये ॥४॥
यत्पादपङ्कजरजःश्रुतिभिर्विमृग्यं यन्नाभिपंकजभवः कमलासनश्च।
यन्नामसाररसिको भगवान् पुरारिः तं रामचन्द्रमनिशं हृदि भावयामि ॥५॥
यस्यावतारचरितानि विरिञ्चलोके गायन्ति नारदमुखाभवपद्मजाद्याः।
आनन्दजाश्रुपरिषिक्तकुचाग्रसीमा वागीश्वरी च तमहं शरणं प्रपद्ये ॥६॥
सोयं परात्मा पुरुषः पुराण एषः स्वयंज्योतिरनन्त आद्यः।
मायातनुं लोकविमोहनीयां धत्ते परानुग्रह एव रामः ॥७॥
अयं हि विश्वोद्भवसंयमाना-मेकः स्वमायागुणबिम्बितो यः।
विरिञ्चिविष्ण्वीश्वरनामभेदान् धत्ते स्वतन्त्रः परिपूर्ण अत्मा ॥८॥
नमोस्तु ते राम तवाङ्घ्रिपंकजं श्रिया धृतं वक्षसि लालितं प्रियात्।
आक्रान्तमेकेन जगत्त्रयं पुरा ध्येयं मुनीन्द्रैरभिमानवर्जितैः ॥९॥
जगतामादिभूतस्त्वं जगत्त्वं जगदाश्रयः।
सर्वभूतेष्वसंबद्ध एको भाति भवान् परः ॥१०॥
ऒङ्कारवाच्यस्त्वं राम वाचामविषयः पुमान्।
वाच्यवाचकभेदेन भवानेव जगन्मयः ॥११॥
कार्यकारणकर्तृत्त्व-फलसाधनभेदतः।
एको विभासि राम त्वं मायया बहुरूपया ॥१२॥
त्वन्मायामोहितधिय-स्त्वां न जानन्ति तत्त्वतः।
मानुषं त्वाभिमन्यन्ते मायिनं परमेश्वरम् ॥१३॥
आकाशवत्त्वं सर्वत्र बहिरन्तर्गतोऽमलः।
असंगोह्यचलो नित्यः शुद्धो बुद्धः सदव्ययः ॥१४॥
योषिन्मूढाहमज्ञा ते तत्त्वं जाने कथं विभो।
तस्मात्ते शतशो राम नमस्कुर्यामनन्यधीः ॥१५॥
देव मे यत्रकुत्रापि स्थिताया अपि सर्वदा।
त्वत्पादकमले सक्ता भक्तिरेव सदास्तु ते ॥१६॥
नमस्ते पुरुषाद्ध्यक्ष नमस्ते भक्तवत्सल।
नमस्तेस्तु हृषीकेश नारायण नमोस्तुते ॥१७॥
भवभयहरमेकं भानुकोटिप्रकाशं करधृतशरचापं कालमेघावभासम्।
कनकरुचिरवस्त्रं रत्नवत् कुण्डलाढ्यं कमलविशदनेत्रं सानुजं राममीडे ॥१८॥
स्तुत्वैवं पुरुषं साक्षात् राघवं पुरतःस्थितम्।
परिक्रम्य प्रणम्याशु सानुज्ञाता ययौ पतिम् ॥१९॥
अहल्यया कृतं स्तोत्रं यः पठेत्भक्तिसंयुतः।
स मुच्यतेऽखिलैः पापैः प्ररब्रह्माधिगच्छति ॥२०॥
पुत्राद्यर्थे पठेद्भक्त्या रामं हृदि विधाय च।
संवत्सरेण लभते वन्ध्या अपि सुपुत्रकम् ॥२१॥
ब्रह्मघ्नो गुरुतल्पगोपि पुरुषः स्तेयी सुरापोपि वा।
मातृभ्रातृविहिंसकोऽपि सततं भोगैकबद्धादरः ॥२२॥
नित्यं स्तोत्रमिदं जपन् रघुपतिं भक्त्या हृदि संस्मरन्।
ध्यायन् मुक्तिमुपैति किं पुनरसौ स्वाचारयुक्तो नरः ॥२३॥
"अहल्याकृत श्रीराम स्तोत्रम" भगवान राम को समर्पित एक पवित्र भजन है, जो हिंदू धर्म में एक प्रतिष्ठित देवता हैं, जो अपनी धार्मिकता, भक्ति और धर्म (कर्तव्य और धार्मिकता) के अवतार के लिए जाने जाते हैं। इस स्तोत्र का श्रेय हिंदू पौराणिक कथाओं के एक पात्र अहल्या को दिया जाता है, जो भगवान राम के स्पर्श से एक पत्थर से एक महिला में बदल गई थी।
अहल्याकृत श्रीराम स्तोत्रम एक भजन है जो भगवान राम की उनके दिव्य गुणों और अहल्या को उसके श्राप से मुक्त करने की उल्लेखनीय घटना के लिए प्रशंसा करता है। गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या एक श्राप के कारण पत्थर में बदल गयी थी। हालाँकि, भगवान राम के स्पर्श ने उन्हें इस श्राप से मुक्त कर दिया, जो उनकी दिव्य कृपा और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण आत्माओं को भी मुक्ति दिलाने की शक्ति का प्रतीक था।
इस स्तोत्र का पाठ या जाप भक्तों द्वारा अपनी भक्ति व्यक्त करने और भगवान राम का आशीर्वाद पाने के लिए किया जाता है। यह अहल्या की मुक्ति की कहानी सुनाता है और भगवान राम की दिव्य उपस्थिति के महत्व और अंधकार को दूर करने और अपने भक्तों पर कृपा प्रदान करने की उनकी क्षमता पर जोर देता है।
अहिल्याकृत श्रीराम स्तोत्रम भगवान राम के दयालु स्वभाव और उनके दिव्य स्पर्श की परिवर्तनकारी शक्ति के प्रति भक्ति और कृतज्ञता की एक सुंदर अभिव्यक्ति है। यह आध्यात्मिकता के मार्ग में आस्था और भक्ति के महत्व की याद दिलाता है।