एक बार वृंदावन में एक संत अक्षय तृतीया के दिन बांके बिहारीजी के चरणों का दर्शन करते हुए श्रद्धा भाव से गुनगुना रहे थे- ‘श्री बांके बिहारीजी के चरण कमल में नयन हमारे अटके’।
एक व्यक्ति वहीं पर खड़ा होकर यह गीत सुन रहा था। उसे प्रभु की भक्ति का यह भाव बहुत पसंद आया। दर्शन करके वह भी गुनगुनाते हुए अपने घर की ओर बढ़ गया।
भक्ति भाव में लीन इस व्यक्ति की गाते-गाते कब जुबान पलट गई, वह जान ही नहीं पाया और वह उल्टा गाने लगा- बांके बिहारी जी के नयन कमल में चरण हमारे अटके।
उसके भक्तिभाव से प्रसन्न होकर बांके बिहारी प्रकट हो गए। प्रभु ने मुस्कुराते हुए उससे कहा, अरे भाई मेरे एक से बढ़कर एक भक्त हैं, परंतु तुझ जैसा निराला भक्त मुझे कभी नहीं मिला। लोगों के नयन तो हमारे चरणों में अटक जाते हैं परंतु तुमने तो हमारे नयन कमल में अपने चरणों को अटका दिया।
प्रभु की बातों को वह समझ नहीं पा रहा था, क्योंकि वह प्रभु के निस्वार्थ प्रेम भक्ति में डूबा था। मगर फिर उसे समझ आया कि प्रभु तो केवल भाव के भूखे हैं। उसे लगा कि अगर उससे कोई गलती हुई होती तो भगवान उसे दर्शन देने न आते।
प्रभु के अदृश्य होने के बाद वह खूब रोया और प्रभु के दर्शन पाकर अपने जीवन को सफल समझने लगा। मान्यता है कि तब से अक्षय तृतीया के दिन बांके बिहारी के चरणों के दर्शन की परंपरा शुरू हुई।