वट सावित्री व्रत यह एक हिन्दू त्योहार है जो विवाहित महिलाओं का विशेष त्योहार है। इस त्योहार को वट अमावस्या भी कहा जाता है। यह त्योहार विवाहित महिलाओं द्वारा मनाया जाता है। इस त्योहार में विवाहित महिला अपने पति के लिए एक बरगद के पेड़ के चारों ओर एक औपचारिक धागा बांधकर अपने प्यार का प्रतीक बनाती है। यह उत्सव सावित्री और सत्यवान की कथा पर आधारित है। जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसलिए यह व्रत भारतीय संस्कृति में एक आदर्श नारित्व का प्रतीक बन गया है।
इस व्रत को लेकर काफी मतभेद है, स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यह व्रत करने का विधान है, वहीं निर्णयामृत आदि के अनुसार ज्येष्ठ मास की अमावस्या को व्रत करने की बात कही गई है।
तिथियों में मतभेद होने के उपरान्त भी इस व्रत का उद्देश्य एक ही है। कई महिलायें इस व्रत को ज्येष्ठ मास की त्रयोदशी से अमावस्या तक करने में विश्वास करती है और इसी प्रकार शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से पूर्णिमा तक करती है। जो भगवान विष्णु की पूजा करते है, ज्यादातर इस व्रत को पूर्णिमा में करते है।
वट सावित्री व्रत में ‘वट’ और ‘सावित्री’ दोनों का विशिष्ट महत्व माना गया है। वट का अर्थ बरगद को पेड़ होता है। बरगद के पेड़ का हिन्दू धर्म में विशेष महत्व माना गया है। पुराणों में यह स्पष्ट किया गया है कि वट में ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों का वास है। सावित्री को, भारतीय संस्कृति में ऐतिहासिक चरित्र माना जाता है। सावित्री का अर्थ वेद माता गायत्री और सरस्वती भी होता है।
वट वृक्ष के नीचे मिट्टी की बनी सावित्री और सत्यवान तथा भैंसे पर सवार यम की प्रतिमा स्थापित कर पूजा करनी चाहिए तथा बड़ की जड़ में पानी देना चाहिए। पूजा के लिए जल, मौली, रोली, कच्चा सूत, भिगोया हुआ चना, फूल तथा धूप होनी चाहिए। जल से वट वृक्ष को सींच कर तने के चारों ओर कच्चा धागा लपेट कर तीन बार परिक्रमा करनी चाहिए। इसके पश्चात् सत्यवान-सावित्री की कथा सुननी चाहिए। इसके पश्चात् भीगे हुए चनों का बायना निकालकर उस पर यथाशक्ति रुपये रखकर अपनी सास को देना चाहिए तथा उनके चरण स्पर्श करना चाहिए।