

यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 7, श्लोक 8 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
रसोहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः |
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ||8||
"हे कौन्तेय (अर्जुन)! मैं जल में स्वाद हूँ, चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, वेदों में प्रणव (ॐ) हूँ, आकाश में ध्वनि हूँ, और पुरुषों में वीर्य हूँ।"
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में अपने व्यापक और सर्वत्र व्याप्त स्वरूप का परिचय दे रहे हैं।
वे कहते हैं —
"अर्जुन! जब तुम मीठे जल का स्वाद अनुभव करते हो, जान लो कि वह मैं हूँ।
जब तुम चंद्रमा और सूर्य की तेजस्विता को निहारते हो, जान लो कि वह मेरी ही झलक है।
जब तुम वेदों में ॐ की दिव्य ध्वनि सुनते हो, जान लो कि वह मेरी वाणी है।
जब तुम आकाश में अनहद नाद सुनते हो, जान लो कि वह भी मैं हूँ।
और जब तुम किसी पुरुष में पुरुषार्थ, बल और साहस को देखते हो, जान लो कि वह मेरा अंश है।"
भगवान हमें सिखाते हैं कि ईश्वर कोई दूर, कहीं छुपा हुआ सत्ता नहीं है।
वह हमारे चारों ओर, हमारी हर अनुभूति में उपस्थित है —
स्वाद में, प्रकाश में, ध्वनि में और जीवन की शक्ति में।
जिस दिन हम यह देखना सीख जाते हैं,
उस दिन हर अनुभव भगवान की उपस्थिति का साक्षात्कार बन जाता है।
छोटा सारांश:
भगवान श्रीकृष्ण स्वयं जल के स्वाद, सूर्य-चंद्रमा के प्रकाश, वेदों के प्रणव (ॐ) स्वरूप, आकाश की ध्वनि और पुरुषों के पराक्रम में प्रकट होते हैं।
हर क्षण, हर तत्व में, वे हमारे साथ हैं।