

यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 7, श्लोक 6 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय |
अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा ||6||
"हे अर्जुन! इस संसार के जितने भी प्राणी हैं, वे मेरी जड़ और चेतन दोनों प्रकृतियों से उत्पन्न हुए हैं। जान लो कि मैं सम्पूर्ण जगत का आदि कारण हूँ — सृष्टि की उत्पत्ति भी मुझसे है और प्रलय भी मेरी ही ओर लौटता है।"
यहाँ भगवान श्रीकृष्ण हमें जीवन का एक गहरा रहस्य सिखा रहे हैं।
वे कहते हैं —
"यह सारा संसार, इसकी सारी सृष्टियाँ, सब कुछ मुझसे ही जन्म लेता है और अन्ततः मुझमें ही विलीन हो जाता है।"
जैसे एक माँ के हृदय से उसके बच्चे जन्म लेते हैं, वैसे ही यह सम्पूर्ण सृष्टि भगवान के अस्तित्व से निकली है।
और जैसे कोई प्रेमपूर्वक अपने बच्चों को वापस अपने आँचल में समेट लेता है, वैसे ही यह सारा जगत अन्ततः भगवान की शरण में लौट आता है।
भगवान हमें याद दिलाते हैं कि हम इस अनंत सृष्टि का छोटा-सा भाग नहीं हैं —
हम स्वयं उसी परम सत्ता का अंश हैं।
जिस दिन हम यह जान लेते हैं, उस दिन संसार के मोह और भय समाप्त हो जाते हैं।
तब हम जान जाते हैं कि हमारा असली घर भगवान में ही है।
संक्षेप में:
भगवान श्रीकृष्ण यह बताना चाहते हैं कि न केवल यह स्थूल जगत उनकी शक्ति से चलता है, बल्कि चेतन सत्ता (जीवात्मा) भी उन्हीं की दिव्य शक्ति का अंश है। समस्त सृष्टि का आरंभ और अंत भगवान से ही होता है।