

कल्पना कीजिए, एक शांत सुबह का मंदिर, जहां हवा में अगरबत्ती की सुगंध घुली हुई है। मैं वहां खड़ा हूं, और सामने एक ब्राह्मण देवता हैं, जिनके हाथ में एक साधारण-सा दिखने वाला, लेकिन पवित्र धागा – जनेऊ। वो इसे हनुमान जी को चढ़ाने आए हैं। थोड़ी देर बाद महंत जी आते हैं, और बातें शुरू होती हैं। ब्राह्मण कहते हैं, "कल रात चंद्रग्रहण लगा था, वैदिक नियमों के अनुसार जनेऊ बदलना पड़ता है।" महंत जी थोड़ा संकोच करते हैं, लेकिन ब्राह्मण की विनम्रता और ज्ञान से प्रभावित हो जाते हैं। अंत में, मंत्रोच्चार के साथ हनुमान जी को नया जनेऊ पहनाया जाता है, और पुराना बहते जल में विसर्जित। ये दृश्य मेरे मन पर ऐसा अंकित हो गया कि आज भी सोचता हूं – जनेऊ सिर्फ एक धागा क्यों नहीं, बल्कि जीवन का वो सूत्र है जो हमें बांधे रखता है, सिखाता है।
हिंदू धर्म में जनेऊ, जिसे यज्ञोपवीत भी कहा जाता है, एक पवित्र सूत्र है जो तीन सूतों से बना होता है। ये 16 संस्कारों में से एक प्रमुख संस्कार है – उपनयन संस्कार। इसे पहनना द्वितीय जन्म का प्रतीक माना जाता है, जिससे व्यक्ति 'द्विज' कहलाता है। इसका मतलब? पहला जन्म मां के गर्भ से, दूसरा गुरु के पास वेदों की शिक्षा से। जनेऊ धारण करने के बाद ही व्यक्ति को यज्ञ करने, वेद पढ़ने और धार्मिक कृत्यों का अधिकार मिलता है।
जनेऊ कपास के धागे से बना एक पवित्र सूत्र होता है, जिसमें तीन धागे होते हैं और प्रत्येक धागे में तीन-तीन तार होते हैं। ये तीन धागे त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश), तीन गुणों (सत्व, रजस, तमस), और तीन ऋणों (पितृ ऋण, देव ऋण, ऋषि ऋण) का प्रतीक माने जाते हैं। इन्हें आपस में ब्रह्मग्रंथि (ब्रह्मा की गांठ) द्वारा बांधा जाता है।
क्यों पहनते हैं? क्योंकि ये सदाचार, शुद्धता और धर्म का प्रतीक है। हिंदू शास्त्रों में कहा गया है कि जनेऊ पहनने से बुरी शक्तियां दूर रहती हैं, मन शांत होता है, और व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन की ओर अग्रसर होता है। हनुमान चालीसा में तो स्पष्ट लिखा है – "हाथ बज्र और ध्वजा विराजे, कांधे मूज जनेऊ साजे"। भगवान हनुमान स्वयं इसे धारण किए हुए हैं, जो बताता है कि ये ब्रह्मचर्य और तपस्या का चिन्ह है। मेरे लिए, ये वो याद दिलाता है कि जीवन में हर बंधन स्वतंत्रता ही देता है – जैसे जनेऊ बांधता है, लेकिन आत्मा को मुक्त करता है।
जनेऊ कोई बाजार का सामान नहीं, बल्कि वैदिक विधि से तैयार किया जाता है। उस ब्राह्मण देव की व्याख्या सुनकर मैं स्तब्ध रह गया था। आइए, जानें मुख्य नियम:
ये नियम कठोर लगते हैं, लेकिन इन्हीं में तो जीवन का अनुशासन छिपा है। उस दिन मंदिर से लौटते हुए मैंने सोचा, मैं भी ब्राह्मण हूं, क्यों न मैं भी इसे अपनाऊं? ब्राह्मण देव से मिलने का वादा किया, और घर आकर पुरानी डायरी में लिख डाला – "जनेऊ पहनना मतलब बंधना नहीं, बंधन में बंधकर मुक्त होना।"
आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में जनेऊ हमें याद दिलाता है कि छोटी-छोटी रस्में ही तो जीवन को अर्थ देती हैं। वो ब्राह्मण, जिनकी आंखों में श्रद्धा चमक रही थी, वो महंत जी का सम्मान – ये सब मानवता का सुंदर चित्र है। अगर हम सब अपने 'जनेऊ' – यानी कर्तव्य – को इतनी शुद्धता से निभाएं, तो दुनिया कितनी पवित्र हो जाए।
इस लेख को लिखते हुए मन भारी हो गया। अगर आपने कभी जनेऊ बदला हो, या कोई ऐसी घटना हो, तो शेयर कीजिए। जय श्री राम! जय हनुमान!