भगवद गीता अध्याय 7, श्लोक 12

यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 7, श्लोक 12 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:

ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये |
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ||12||

हिंदी अनुवाद:

"हे अर्जुन! सात्त्विक, राजस और तामस – ये जितने भी भाव हैं, उन्हें जानो कि वे सब मेरे ही द्वारा उत्पन्न हुए हैं। परन्तु वे भाव मुझमें नहीं हैं, बल्कि वे सब मुझ पर आश्रित हैं।"

व्याख्या विस्तार से:

भगवान कृष्ण यहाँ हमें बड़ी कोमलता से याद दिलाते हैं कि संसार की हर प्रवृत्ति—चाहे वह उजली हो (सात्त्विक शान्ति), जोशीली हो (राजसिक उत्साह), या भारी और अवसादपूर्ण हो (तामसिक जड़ता)—सबकी जड़ वही हैं।

  • जब हम किसी की मदद कर के दिल भर आता है, वह सात्त्विक करुणा भी उसी की झलक है।
  • जब हम कुछ बड़ा कर गुज़रने को मचल उठते हैं, वह राजसिक आग भी उसी की दी हुई है।
  • यहाँ तक कि हमारी थकान, उदासी या भ्रम—जो हमें कभी-कभी रोक लेते हैं—वे तामसिक बादल भी उसी आकाश में उठे हैं।

फिर भी कृष्ण बड़े प्यार से समझाते हैं—

“ये भाव मुझसे जन्मे हैं, पर मैं इनमें सीमित नहीं। जैसे समुद्र से लहरें उठती हैं पर समुद्र लहरों तक सीमित नहीं होता, वैसे ही मैं इन गुणों से परे, सबको अपनी गोद में थामे हुए हूँ।”

संस्कृत शब्दों का हिंदी अर्थ:

  • ये - जो (सब)
  • च - और
  • एव - ही
  • सात्त्विका - सात्त्विक (सात्त्व गुण वाले)
  • भावाः - भाव, प्रवृत्तियाँ, अवस्थाएँ
  • राजसाः - राजसिक (रज गुण वाले)
  • तामसाः - तामसिक (तम गुण वाले)
  • च - और
  • ये - जो (वे)
  • मत्मु - झ-से, मुझ-से उत्पन्न
  • एव - ही
  • इति - इस प्रकार
  • तान्उ - न (सबको)
  • विद्धि - जान, समझ
  • न - नहीं
  • तु - लेकिन
  • अहं - मैं
  • तेषु - उन-में
  • ते - वे
  • मयि - मुझ-में



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