

यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 7, श्लोक 12 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये |
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ||12||
"हे अर्जुन! सात्त्विक, राजस और तामस – ये जितने भी भाव हैं, उन्हें जानो कि वे सब मेरे ही द्वारा उत्पन्न हुए हैं। परन्तु वे भाव मुझमें नहीं हैं, बल्कि वे सब मुझ पर आश्रित हैं।"
भगवान कृष्ण यहाँ हमें बड़ी कोमलता से याद दिलाते हैं कि संसार की हर प्रवृत्ति—चाहे वह उजली हो (सात्त्विक शान्ति), जोशीली हो (राजसिक उत्साह), या भारी और अवसादपूर्ण हो (तामसिक जड़ता)—सबकी जड़ वही हैं।
फिर भी कृष्ण बड़े प्यार से समझाते हैं—
“ये भाव मुझसे जन्मे हैं, पर मैं इनमें सीमित नहीं। जैसे समुद्र से लहरें उठती हैं पर समुद्र लहरों तक सीमित नहीं होता, वैसे ही मैं इन गुणों से परे, सबको अपनी गोद में थामे हुए हूँ।”