

भक्ति केवल एक कर्मकांड नहीं, बल्कि हृदय से जुड़ा हुआ भाव है। जब मन, वचन और कर्म से ईश्वर को याद किया जाता है, तभी भक्ति का वास्तविक आनंद और चमत्कार दिखाई देता है। इस भाव को एक सुंदर कथा के माध्यम से समझा जा सकता है।
एक व्यक्ति बहुत परेशान था। उसके एक मित्र ने उसे सलाह दी कि वह भगवान श्रीकृष्ण की पूजा शुरू करे। उसने एक श्रीकृष्ण की सुंदर मूर्ति घर लाकर उसकी पूजा प्रारंभ कर दी। कई वर्ष बीत गए, परंतु उसे कोई विशेष लाभ महसूस नहीं हुआ।
एक दिन उसके दूसरे मित्र ने कहा,
"तू काली माँ की पूजा कर, तेरे दुख अवश्य दूर होंगे।"
अगले ही दिन वह काली माँ की एक मूर्ति घर ले आया। उसने श्रीकृष्ण की मूर्ति को मंदिर के ऊपर बने एक ताखे में रख दिया और काली माँ की मूर्ति को मंदिर में रखकर पूजा करने लगा।
कुछ समय बाद उसके मन में विचार आया—जो अगरबत्ती और धूपबत्ती मैं काली माँ को अर्पित कर रहा हूँ, उसकी सुगंध तो श्रीकृष्ण तक भी पहुँचेगी। यह सोचकर उसने श्रीकृष्ण के मुँह पर कपड़ा बाँधने का निश्चय किया, ताकि धूप का धुआँ वहाँ न जाए।
जैसे ही वह ऊपर चढ़कर श्रीकृष्ण के मुँह पर कपड़ा बाँधने लगा, अचानक भगवान कृष्ण ने उसका हाथ पकड़ लिया। यह देखकर वह व्यक्ति हैरान रह गया। उसने पूछा,
"भगवान! इतने वर्षों से पूजा कर रहा था, तब तो आप प्रकट नहीं हुए, अब कैसे प्रकट हो गए?"
भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए बोले,
"आज तक तुम मुझे केवल एक मूर्ति समझकर पूजा करते थे, लेकिन आज तुम्हें यह अनुभव हुआ कि 'कृष्ण साँस ले रहा है' — बस, यही सच्ची भक्ति है, और इसी भाव ने मुझे प्रकट कर दिया।"
सीख:
भक्ति का असली अर्थ केवल पूजा-पाठ या अनुष्ठान करना नहीं, बल्कि ईश्वर को अपने हृदय में जीवंत मानकर उनसे जुड़ना है। जब यह भाव जागृत होता है, तभी ईश्वर का साक्षात्कार संभव होता है।
जय श्री राधे कृष्ण