आधी साड़ी का पुण्य - द्रोपदी की लाज और भगवान की कृपा

यमुना तट पर एक दिन द्रौपदी स्नान करने पहुँचीं। तभी उनकी दृष्टि पास ही स्नान करते एक साधु पर पड़ी। साधु के पास केवल एक लंगोटी थी। दूसरी लंगोटी किनारे पर रखी हुई थी, परंतु तेज़ हवा का झोंका आया और वह लंगोटी पानी में बह गई। संयोगवश जो लंगोटी पहनी हुई थी, वह भी भीगकर फट गई। साधु असहाय और परेशान हो गया।

भीड़ बढ़ने लगी थी, लोग आते-जाते साधु को देख सकते थे। वह लज्जा से काँप उठा और पास ही एक झाड़ी के पीछे छिप गया, यह सोचकर कि रात का अंधेरा होते ही किसी तरह घर लौट जाएगा।

द्रौपदी ने यह दृश्य देखा और साधु की पीड़ा को समझा। उनके पास दूसरी साड़ी न थी। उन्होंने अपनी साड़ी फाड़ ली—आधी से स्वयं को ढका और आधी लेकर उस झाड़ी के पास पहुँचीं। उन्होंने साधु से कहा –
“पिताजी! आपकी कठिनाई मैंने देखी है। यह आधी साड़ी लीजिए और तन ढककर घर जाइए। आधी से मेरा भी काम चल जाएगा।”

साधु की आँखों से आँसू बह निकले। उसने कपड़ा लिया और मन ही मन द्रौपदी को आशीर्वाद दिया –
“बेटी, भगवान सदा तुम्हारी लाज की रक्षा करें।”

समय बीतता गया। महाभारत का वह भयानक क्षण आया जब द्रौपदी को पांडव जुए में हार गए। दुशासन उसे सभा में अपमानित करने के लिए वस्त्रहीन करने पर उतारू हुआ। द्रौपदी असहाय होकर प्रभु को पुकारने लगीं।

भगवान ने नारद से कहा –
“हर कोई अपने कर्मों का फल भोगता है। देखो, द्रौपदी का कोई पुण्य शेष है तो उसकी रक्षा अवश्य होगी।”

नारद ने दिव्य बही देखी और बताया कि द्रौपदी ने एक बार साधु को अपनी आधी साड़ी दान दी थी। उस पुण्य का फल समय पर लौटाना ही होगा।

तभी भगवान गरुड़ पर सवार होकर वस्त्रों का गट्ठा लेकर पहुँचे। सभा में जब दुशासन वस्त्र खींचता रहा, तो भगवान ऊपर से वस्त्र प्रदान करते गए। कपड़े बढ़ते रहे, दुशासन थक गया, परंतु वस्त्र कभी समाप्त न हुए। इस प्रकार द्रौपदी की लाज बच गई।

🌺 संदेश यही है—जो भी हम निस्वार्थ भाव से करते हैं, उसका फल हमें अवश्य मिलता है। यदि मनुष्य स्वयं कुछ नहीं करता, तो ईश्वर भी उसकी सहायता नहीं करते। लेकिन यदि पुण्य का एक भी बीज बोया गया हो, तो विधाता उसे अनंत फल में बदल देते हैं।




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