

"अश्वत्थमेकम् पिचुमन्दमेकम्
न्यग्रोधमेकम् दश चिञ्चिणीकान्।
कपित्थबिल्वाऽऽमलकत्रयञ्च
पञ्चाऽऽम्रमुप्त्वा नरकं न पश्येत्।।"
"एक अश्वत्थ (पीपल), एक पिचुमंद (महुआ), एक न्यग्रोध (बरगद), दस चिञ्चिणी (छोटे इमली के पेड़),
तीन-तीन कपित्थ (कठहल), बिल्व (बेल), और आमलक (आंवला) तथा पाँच आम के वृक्षों का रोपण करने वाला मनुष्य नरक के दर्शन नहीं करता।"
भारतीय संस्कृति में वृक्षारोपण को केवल पर्यावरणीय कार्य नहीं, बल्कि एक पुण्यकर्म माना गया है। इस श्लोक में महर्षियों ने यह बताया है कि यदि कोई व्यक्ति कुछ विशिष्ट वृक्षों का रोपण करता है, तो वह जीवन के बाद भी नरक को नहीं देखता — यानी उसे मोक्ष अथवा दिव्य गति प्राप्त होती है।
जहाँ आज के समय में पर्यावरण संकट गहराता जा रहा है, वहीं इस श्लोक के माध्यम से प्राचीन ऋषियों ने वृक्षारोपण को धार्मिक और आध्यात्मिक ऊँचाई दी है। यह श्लोक केवल एक धार्मिक आदेश नहीं, बल्कि एक पर्यावरणीय चेतना भी है।
सोचिए, जब हम एक पेड़ लगाते हैं, तो हम केवल धरती को हरियाली नहीं दे रहे होते, बल्कि अपने अगले जन्म के लिए पुण्य भी संचय कर रहे होते हैं। एक ऐसा पुण्य जो हमें नरक जैसे दुःखद अनुभव से भी बचा सकता है।