

उत्तराखंड की सुरम्य वादियों में बसा ग्वालदम न केवल अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यहां स्थित बधांगढ़ी मंदिर अपनी आध्यात्मिक आभा से भी मन को गहराई तक छू लेता है। ऊँचे पहाड़ों की गोद में स्थित यह प्राचीन मंदिर माँ काली (दक्षिण काली) और भगवान शिव को समर्पित है।
कहा जाता है कि यह मंदिर कत्युरी राजवंश के शासनकाल (8वीं से 12वीं सदी) में निर्मित हुआ था। उस समय के राजा न केवल अपने प्रशासनिक कौशल के लिए, बल्कि अपनी धार्मिक आस्था और देवी-देवताओं के प्रति समर्पण के लिए भी जाने जाते थे। बधांगढ़ी मंदिर उसी युग की आध्यात्मिक विरासत का जीवंत प्रमाण है।
माँ दक्षिण काली शक्ति और संरक्षण का प्रतीक हैं। यहां आने वाले श्रद्धालु मानते हैं कि माँ की कृपा से जीवन की हर कठिनाई दूर होती है। मंदिर के गर्भगृह में स्थापित माँ की प्रतिमा अत्यंत तेजस्वी और दिव्य आभा से परिपूर्ण है। पूजा के समय जब घंटियों की मधुर ध्वनि और धूप की सुगंध वातावरण में घुलती है, तो मन में एक अद्भुत शांति उतर आती है।
माँ काली के साथ-साथ मंदिर में भगवान शिव की उपस्थिति इस स्थल को और भी पवित्र बनाती है। यह स्थान मानो शक्ति और शिव के मिलन का प्रतीक है। कहते हैं, जो भक्त यहाँ सच्चे मन से जल अर्पित करता है, उसके जीवन से नकारात्मकता स्वतः दूर हो जाती है।
बधनगढ़ी मंदिर का असली जादू तो उसके दृश्यों में है। पहाड़ी पर बसा होने से यहां से उत्तराखंड की प्रमुख चोटियां – नंदा देवी, त्रिशूल, पंचाचूली – जैसे आंखों के सामने नाचती नजर आती हैं। सुबह की पहली किरणें जब इन चोटियों पर पड़ती हैं, तो लगा जैसे स्वर्ग का द्वार खुल गया हो। मां काली की पूजा यहां विशेष है – नवरात्रि में तो भक्तों का सैलाब उमड़ आता है, भजन-कीर्तन से वादियां गूंज उठती हैं। ये मंदिर आध्यात्मिक यात्रा का केंद्र है, जहां लोग अपनी मनोकामनाएं रखते हैं – कोई संकट मुक्ति के लिए, तो कोई समृद्धि की कामना से। लेकिन मेरे लिए, ये वो जगह है जहां प्रकृति और भक्ति एक हो जाती हैं – हवा में मां की जयकारे, और दूर चोटियों का मौन संवाद।
ग्वालदम से बस आधे घंटे की ड्राइव, और आप वहां। रास्ते में हरे-भरे जंगल, झरने की कलकल – सब मिलकर यात्रा को यादगार बना देते हैं। अगर मौका मिले, सुबह के समय जब सूरज की किरणें इन चोटियों पर सुनहरी आभा बिखेरती हैं, तो लगता है मानो देवभूमि स्वयं भक्तों को आशीर्वाद दे रही हो।
बधांगढ़ी मंदिर केवल पूजा का स्थान नहीं, बल्कि आत्मा से जुड़ने का माध्यम है। यहां आने वाले हर व्यक्ति को एक अद्भुत सुकून का अनुभव होता है — जैसे प्रकृति और परमात्मा दोनों एक साथ संवाद कर रहे हों। कई श्रद्धालु बताते हैं कि मंदिर परिसर में बैठकर ध्यान करने से मन की सारी अशांतियाँ समाप्त हो जाती हैं।
ये मंदिर सदियों पुराना है, कत्यूरी राजवंश के समय का – जो 8वीं से 12वीं शताब्दी तक इस क्षेत्र पर राज किया। नाम ही बताता है इसकी महिमा – "बधन" मां काली और भगवान शिव का प्रतीक, और "गढ़ी" पहाड़ी पर बने किले जैसी मजबूती। दक्षिण काली, या दक्षिणेश्वर काली के रूप में पूजी जाने वाली मां यहां विराजमान हैं, जिनकी कृपा से ये पहाड़ियां सुरक्षित रहती हैं। शिवजी के साथ उनका ये संयोजन तो जैसे जीवन-मृत्यु का संतुलन सिखाता है – विनाश और सृजन का। कत्यूरी काल में बने ये मंदिर हिमालयी वास्तुकला का नमूना हैं – लकड़ी की नक्काशी, पत्थर की मजबूत दीवारें, और शिखर पर वो कलश जो सूरज की पहली किरणों में चमक उठता है।
बधांगढ़ी मंदिर ग्वालदम (चमोली ज़िला, उत्तराखंड) से लगभग 8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह मार्ग घने देवदार के जंगलों और मनमोहक दृश्यों से होकर गुजरता है। यहाँ तक पहुँचने के लिए स्थानीय टैक्सी या जीप की सुविधा उपलब्ध रहती है।
🌿 निष्कर्ष
बधांगढ़ी मंदिर केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि श्रद्धा, प्रकृति और शांति का संगम है। माँ काली और भगवान शिव की उपस्थिति इस स्थान को दिव्यता से भर देती है। यदि आप उत्तराखंड की यात्रा पर हैं, तो ग्वालदम का यह मंदिर अवश्य देखें — यह यात्रा आपकी आत्मा को गहराई से स्पर्श करेगी।
(लेखक की नोट: ये शब्द मेरी उन भावुक यादों से निकले हैं, जो ग्वालदम की वादियों में बसी हैं। आपकी कोई बधनगढ़ी यात्रा की कहानी? जरूर शेयर करें।)