भगवद गीता अध्याय 5, श्लोक 20

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् |
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित: || 20||

अर्थ: ईश्वर में स्थित, दिव्य ज्ञान की दृढ़ समझ रखने वाले और मोह से बाधित न होने वाले, वे न तो किसी सुखद वस्तु को प्राप्त करने में प्रसन्न होते हैं और न ही अप्रिय को भोगने पर शोक करते हैं।

शब्द से शब्द का अर्थ:

– न;
प्रहृष्येत्– आनन्दित;
प्रियम्– सुखद;
प्राप्य– प्राप्त करना;
– न ही;
उद्विजेत्– व्याकुल हो जाते हैं;
प्राप्य– प्राप्त करके;
– भी;
अप्रियम् - अप्रिय;
स्थिर-बुद्धिः– स्थिर बुद्धि;
असम्मूढः– दृढ़ता से स्थित;
ब्रह्म-वित्– दिव्य ज्ञान की दृढ़ समझ रखने वाले;
ब्रह्मणि– ईश्वर में स्थित;
स्थितः - स्थित |



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