यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 6, श्लोक 21 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् |
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वत: || 21||
"वह जो परम आनंद है, जिसे केवल बुद्धि द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है और जो इंद्रियों से परे है, जिस अवस्था को प्राप्त कर व्यक्ति कभी विचलित नहीं होता और सत्य में स्थिर रहता है।"
इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि योगाभ्यास से साधक उस परम आनंद (आत्यन्तिक सुख) को प्राप्त करता है, जो इंद्रियों से परे होता है और केवल बुद्धि के द्वारा समझा जा सकता है। जब व्यक्ति इस स्थिति को प्राप्त कर लेता है, तो वह इस आनंद में स्थिर हो जाता है और फिर कभी भी इस स्थिति से विचलित नहीं होता। यह योग की उच्चतम अवस्था का वर्णन है, जहाँ आत्मज्ञान के साथ स्थायी शांति और संतोष प्राप्त होता है।
सुखम् - आनंद, सुख
आत्यन्तिकम् - परम, अंतिम
यत् - जो
तत् - वह
बुद्धि-ग्राह्यम् - बुद्धि से ग्रहण किया जा सकने वाला
अतीन्द्रियम् - इंद्रियों से परे
वेत्ति - जानता है, अनुभव करता है
यत्र - जहाँ
न - नहीं
च - और
एव - निश्चित रूप से
अयं - यह (योगी)
स्थितः - स्थिर
चलति - हिलता, विचलित होता
तत्त्वतः - सत्य या वास्तविकता के दृष्टिकोण से