
अक्षय नवमी हिन्दू धर्म में एक महत्वपूर्ण अनुष्ठानों में से एक है। अक्षय नवमी हिन्दू कैलेंडर के कार्तिक के महीने के दौरान आता है। यह दिन कार्तिक महीनें की शुल्क पक्ष के नवमी के दिन मनाया जाने वाला एक अनुष्ठान है। अक्षय नवमी को देव उठानी एकादशी से दो दिन पहले मनाया जाता है। ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार, अक्षय नवमी अक्टूबर-नवंबर के महीनों के बीच आती है।
अक्षय नवमी के दिन मथुरा-वृंदावन की परिक्रमा बहुत शुभ मानी जाती है। देश के कोने-कोने से हिंदू भक्त इस दिन अधिकतम लाभ अर्जित करने के लिए एकत्र होते हैं।
पौराणिक मान्यता के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने वृंदावन-गोकुल की गलियों को छोड़कर मथुरा प्रस्थान किया था। यह वह दिन था जब भगवान श्रीकृष्ण ने लीलाओं को त्याग कर कत्र्तव्य के पथ पर कदम रखा था।
ऐसा माना जाता है कि अक्षय नवमी के दिन सत्ययुग के शुरूआता हुई थी। इसलिए अक्षय नवमी को ‘सत्य युगादि के रूप में भी जाना जाता है। यह दिन सभी प्रकार के दान-पुण्य गतिविधियों के लिए महत्वपूर्ण दिन माना जाता है। जैसा कि अक्षय नाम से पता चलता है, इस दिन कोई भी धर्मार्थ या भक्तिपूर्ण कार्य करने का फल कभी कम नहीं होता और न केवल इस जन्म में बल्कि अगले जन्म में भी व्यक्ति को लाभ होता है।
अक्षय नवमी को देश के विभिन्न हिस्सों में ‘आंवला नवमी’ के रूप में भी मनाया जाता है। इस दिन, आंवला के पेड़ की पूजा की जाती है क्योंकि इसे सभी देवी-देवताओं का निवास माना जाता है। भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल में, इस दिन को ‘जगधात्री पूजा’ के रूप में मनाया जाता है, जिसमें सट्टा की देवी ‘जगधात्री’ की पूरी भक्ति के साथ पूजा की जाती है।
अक्षय नवमी को ‘कूष्मांडा नवमी’ के रूप में भी मनाया जाता है क्योंकि हिंदू किंवदंतियों के अनुसार, इस दिन भगवान विष्णु ने ‘कूष्मांडा’ नामक राक्षस को परास्त किया और अधर्म के प्रसार में बाधा डाली।
प्रातः स्नान करके शुद्ध आत्मा से आँवले के वृक्ष के नीचे पूर्व दिशा में बैठकर पूजन करना चाहिए। पूजन के बाद उसकी जड़ में जल या कच्चा दूध देना चाहिए। इसके बाद वृक्ष के चारों ओर कच्चा धागा बाँधना चाहिए। कपूर बाती या शुद्ध घी की बाती से आरती करते हुए सात बार परिक्रमा करनी चाहिए। इसके बाद पेड़ के नीचे ब्राह्मण को भोजन कराकर दान दक्षिणा देनी चाहिए।
काशी नगरी में एक निःसन्तान धर्मात्मा तथा दानी व्यापारी रहता था। एक दिन व्यापारी की पत्नी से एक पड़ोसन बोली यदि तुम किसी पराये लड़के की बलि भैरव के नाम से चढ़ा दो तो तुम्हें पुत्र प्राप्त हो सकता है।
यह बात जब व्यापारी को पता चली तो उसने अस्वीकार कर दिया। परन्तु उसकी पत्नी मौके की तलाश में लगी रही।
एक दिन एक कन्या को उसने कुएँ में गिराकर भैरों देवता के नाम पर बलि दे दी। इस हत्या का परिणाम विपरीत हुआ। लाभ की जगह उसके बदन में कोढ़ हो गया। लड़की की प्रेतात्मा उसे सताने लगी।
व्यापारी के पूछने पर उसकी पत्नी ने सारी बात बता दी। इस पर व्यापारी कहने लगा गौवध, ब्राह्मणवध तथा बालवध करने वाले के लिए इस संसार में कहीं जगह नहीं है। इसलिए तू गंगातट पर जाकर भगवान का भजन कर तथा गंगा में स्नान कर तभी तू इस कष्ट से छुटकारा पा सकती है।
व्यापारी की पत्नी गंगा किनारे रहने लगी। कुछ दिन बाद गंगा माता वृद्धा का वेष धारण कर उसके पास आयी और बोली तू मथुरा जाकर कार्तिक मास की नवमी का व्रत तथा आँवला वृक्ष की परिक्रमा कर तथा उसका पूजन कर। यह व्रत करने से तेरा यह कोढ़ दूर हो जायेगा।
वृद्धा की बात मानकर वह, व्यापारी से आज्ञा लेकर मथुरा जाकर विधिपूर्वक आँवला का व्रत करने लगी। ऐसा करने से वह भगवान की कृपा से दिव्य शरीर वाली हो गई तथा उसे पुत्र की प्राप्ति भी हुई।
एक सेठ आंवला नवमी के दिन आंवले के पेड़ के नीचे ब्राह्मणों को भोजन कराया करता था और उन्हें सोने का दान दिया करता था। उसके पुत्रों को यह सब देखकर अच्छा नहीं लगता था और वे पिता से लड़ते-झगड़ते थे। घर की रोज-रोज की कलह से तंग आकर सेठ घर छोड़कर दूसरे गांव में रहने चला गया। उसने वहां जीवनयापन के लिए एक दुकान लगा ली। उसने दुकान के आगे आंवले का एक पेड़ लगाया। उसकी दुकान खूब चलने लगी। वह यहां भी आंवला नवमी का व्रत-पूजा करने लगा तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान देने लगा। उधर, उसके पुत्रों की व्यापार ठप हो गया। उनकी समझ में यह बात आ गई कि हम पिताश्री के भाग्य से ही खाते थे। बेटे अपने पिता के पास गए और अपनी गलती की माफी मांगने लगे। पिता की आज्ञानुसार वे भी आंवला के पेड़ की पूजा और दान करने लगे। इसके प्रभाव से उनके घर में भी पहले जैसी खुशहाली आ गई।