

यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 7, श्लोक 11 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् |
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ||11||
"हे अर्जुन! मैं ही वह शक्ति हूँ जो भीतर से आती है, जो किसी लोभ या वासना से नहीं, बल्कि सच्चाई और संयम से भरी होती है। और जब कोई इच्छा भी धर्म की मर्यादा में हो — जैसे किसी का भला करने की, तो वह भी मैं ही हूँ।"
इस श्लोक में भगवान हमें याद दिलाते हैं कि असली ताकत वह होती है, जो लोभ और वासना से मुक्त होती है। जब हमारी इच्छाएं भी सच्चाई, सेवा और धर्म पर आधारित हों — तब वे केवल इच्छाएं नहीं रहतीं, वे प्रभु की प्रेरणा बन जाती हैं। ऐसी शक्ति और ऐसे संकल्प में ईश्वर स्वयं बसते हैं।