

यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 7, श्लोक 13 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत् |
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम् ||13||
"यह सम्पूर्ण संसार सत्त्व, रजस् और तमस् — इन तीन गुणों से ढका हुआ है। इसी मोह के कारण लोग मुझे, जो इन गुणों से परे और अविनाशी हूँ, पहचान नहीं पाते।"
हर इंसान इस संसार को अपने मन के चश्मे से देखता है — कभी सत्त्व के रूप में शांति और समझ, कभी रजस् में भागदौड़ और चाह, और कभी तमस् में थकान या भ्रम। कृष्ण कहते हैं कि यह पूरी दुनिया इन तीनों गुणों से ढकी है, और यही पर्दा हमें उनके असली रूप से दूर रखता है। जैसे धुंध में सूरज छिपा दिखता है, वैसे ही ये मानसिक गुण हमें भ्रमित कर देते हैं। जब तक हम इन गुणों को पहचानकर उनसे ऊपर उठना नहीं सीखते, तब तक परम सत्य — वह जो सदा है, अपरिवर्तनीय है — दृष्टिगोचर नहीं होता।