

यह श्लोक भगवद गीता, अध्याय 7, श्लोक 14 से है। यह संस्कृत में लिखा गया है और हिंदी में इसका अनुवाद इस प्रकार है:
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ||14||
"यह मेरी दैवी माया, जो सत्त्व, रजस् और तमस् से बनी है, अत्यंत कठिनाई से पार की जा सकती है। पर जो व्यक्ति पूरी श्रद्धा से मेरी शरण में आते हैं, वे इस मायाजाल को पार कर जाते हैं।"
कभी-कभी लगता है जैसे जीवन में हम सब कुछ जानते हुए भी उलझे रहते हैं — यही है भगवान की दैवी माया, जो सत्त्व, रजस् और तमस् जैसे तीन गुणों से बनी है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह माया इतनी सूक्ष्म और गहरी है कि सामान्य व्यक्ति इससे बाहर नहीं आ सकता। लेकिन जो व्यक्ति ईमानदारी से, पूरी श्रद्धा से प्रभु की शरण में आता है — "हे प्रभु! अब आप ही मार्ग दिखाओ" — वही इस भ्रम-जाल से मुक्त होता है। यह शरणागति कोई कमजोरी नहीं, बल्कि सबसे बड़ी शक्ति है जो हमें भगवान से जोड़ती है।